हेल्लो दोस्तों आज की प्रस्तुति एक एरोटिक कविता है जिसे बहुत सालों पहले हमने लिखा था ।
एक वक़्त कि बात है पहाड़ों में कहीं लेखक घूमने निकले थे । पहाड़ों के हुस्न का आनंद वह ले ही रहे थे कि अचानक उनकी नजर रास्ते में एक चलती एक हृष्ट पुष्ट पहाड़ी युवती पर पड़ी। जो टेढ़े मेढे पहाड़ी रास्तों पर बड़े मजे से इठलाती हुई मस्ती में कहीं जा रही थी।
उसकी चाल इस कदर मोहित करने वाली थी कि लेखक मंत्रमुगध होकर उसकी चाल को देखने लगे। ये ऐसा अनुभव था जिसे वह आज तक 10 साल बाद भी नहीं भुला पाए हैं। उस वक़्त कुछ पंक्तियां लिखी थी आपके सामने प्रस्तुत हैं। पाठक गण से प्रार्थना है इनका का कुछ गलत अर्थ ना लगाएं ये एक युवा कवि के मन के भाव हैं।
इन पंक्तियों में कुछ पहाड़ी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है जो इस प्रकार हैं।
बुग्याल- >पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले विस्तृत घास के मैदान।
पिरूल- > चीड़ के सूखे पत्ते जो नरम बिछौने के काम आते हैं।
भोले भाले राहगीरों का ध्यान भटका देते हैं
जब हौले से वो अपने कूल्हों को मटका देते हैं।।
मंजिल को निकलते हैं हर रोज शहर के लोग मगर
मादक मस्त कूल्हे सबको सफर में ही अटका देते हैं।।
बेहद तनाव में जब एक दूसरे से टकराते हैं गर्म कूल्हे
पहाड़ों पर जमी बरसों पुरानी वो बर्फ पिघला देते हैं।।
तंग पजामी में हाय कैसे तड़पते हैं आजादी को कूल्हे
इस कदर हिलते हैं कि फ़िर जाने क्या क्या हिला देते हैं।।
बुग्याल से फैले,पिरुल से नरम कूल्हों का दीवाना कौन नहीं,
मौका मिले तो राह में लगे पौधे भी हल्के से सहला लेते हैं।।
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